घन तिमिर से घिरि
इस नीरस धरा पर
अब नया सूरज उगाना चाहिए
आंधीयों से जूझती एक
प्राण ज्योति
इसको बुझने से
बचाना चाहिए
क्यों तिमिर बाहर
जो अन्दर
रोशनी इतनी सघन है
शीत की लहरें है हिम सी
क्यों ये फिर जलता बदन है |
क्या किरण मेरे ही अन्दर
दबी सी मर जायेगी
चेष्टा इसकी कि मिट जाए तिमिर
मिट जायेगी |
या मेरे अंतर की ज्वाला
देश को झुलसाएगी
जब तलक रोशन ना युग हो
तब तलग तड़पायेगी |
क्रांति को जन्म देने को
न शक्ति चाहिए
क्रांति मांगे समर्पण
देश भक्ति चाहिए
मै नहीं कहता कि तुम
भगवान् को ललकार दो
ना मेरी इच्छा कि सारे
तंत्र को धिक्कार दो |
तार है सूने पड़े सच्चाई के
झंकार दो
एक मानव पल रहा अंतस में है
पुकार दो |
आज तक जो स्वप्न
हम सबके ह्रदय में है पला
उस सपन को आज का
सच बनाना चाहिए
अब नया सूरज उगाना चाहिए ||
1 comment:
"हो चुकी अब पीड़ पर्वत सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से भी कोई गंगा निकालनी चाहिए ... दुष्यंत कुमार "
- तुम भी थोड़े क्रांतिकारी होते जा रहे हो ...संभल जाओ ,क्रांति बलिदान मांगती है !! पर रचना काफी सुन्दर है ..देशभक्ति की एक कविता की बढोतरी हुई :)
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