Sunday, March 22, 2009

बर्तन खत्म होने का इंतज़ार

माँ जब बर्तन मान्झकर कमरे में आती तब मै अक्सर उनकी गीली साड़ी से लिपट जाया करता था। और वो प्यार से एकहाथ मेरे सर पर रख देती और दूसरे हाथ से मेरी पीठ सहलाया करती। कभी-कभी अगर थकी हो तो नीचे झुककर चूमभी लिया करती। फिर मै उन्हें अपने पास ही बैठा लेता। जैसे कि जाने कब से मन ही मन बर्तन खत्म होने का इंतज़ार कररहा हूँ। इस बात को तो मै भी नही समझ पाया कि मुझे उस इंतज़ार का बोध होता था या नही। पर हाँ इंतज़ार ज़रूर होताथा। ममता के आलिंगन का सुख कोई बता नही सकता केवल महसूस कर सकता है वो भी पूर्ण रूप से बचपन में जब घर, खिलौनों , ओटले, छत और घर के सामने पड़ी रेत में छुपे छोटे-छोटे सीपों में रमा बचपन माँ की सुबह से शुरू होकर माँ कीरात में ख़त्म होता है। दरअसल रात भी मेरे लिए हुआ करती थी माँ तो जागती थी यह देखने कि कही मै अपने ही गीले परतो नही सो रहा। या मुझे बुखार तो नही। या फिर ये देखने कि मैंने चादर ओढी है या नही। लेकिन सुबह माँ सबसे पहले उठजाती थी मुझे ये इसलिए पता है क्योकि माँ के अलावा मैंने घर के सब लोगो को कभी कभी नींद से उठते देखा है। माँको भी देखा है दोपहर की नींद से उठते जब किचन में बर्तन गिरने कि आवाज़ पर बिल्ली के दूध पी जाने के डर से वो चौककर उठा करती थी। माँ हर रोज़ सुबह झाडू लगाती थी और मुझे लगता था कि ये माँ का शौक है क्योकि हमारे कच्चे घरको धूल रहित कर पाना असंभव था। पर हाँ माँ ने अपनी कोशिश कभी छोडी और ही कभी अधिक एहसास होने दियाकि घर कच्चा है और पडौसी का घर हमसे बेहतर है। ग्रह-स्वामिनी अपने घर की भद्द देख ले यह उसे बर्दाश्त नही। वैसे घरभी कोई छोटा नही , २० लोगो का कुनबा था और इस घर के हर काम को बारीकी से पूरा करना मेरी माँ के जीवन काएकमात्र उद्देश्य।

माँ रोती भी थी। कई बार जब दादी उनपर चिल्लाती या ताई उनपर रौब जमाती या चाचा या घर का कोई भी सदस्य माँ कोदुत्कारने का जन्मसिद्ध अधिकार सब लेकर आए थे। कभी-कभी मेरे पिता का हाथ भी उठता था। तब माँ बहुत लड़ती थी , पिता के ऊपर बहुत चिल्लाती थी। रोती जाती चिल्लाती जाती। मै भी रोता था।

लेकिन अगले दिन फिर बर्तन मान्झकर कमरे में आती और मै रोज़ की तरह उनकी गीली साड़ी से लिपट जाया करता।
कभी-कभी अगर थकी हो तो नीचे झुककर चूम भी लिया करती फिर मै उन्हें अपने पास ही बैठा लेता जैसे कि जाने कब से मन ही मन बर्तन खत्म होने का इंतज़ार कर रहा हूँ

2 comments:

जाना जोगी दे नाल said...

भोगा हुआ यथार्थ
ओर साधारण घट्नाओ का क्रम
सदॆव दिल को छुता है

कुमार ध्रुव said...

पढ़कर बहुत आनंद आया , तारीफ के लिए शब्द नहीं |सच आशीष, माँ की ममता का इससे सचित्र और सरल वर्णन नहीं पढा था अब तक |