
सुबह के ५ बजे है और हम है हॉस्टल-१३ के sky bridge पर... तापमान काफ़ी नीचे है और हम काफ़ी ऊपर।
दूर सामने के रोड की बत्तिया रौशनी कि सुंदर लड़ी बना रही है.... मेरे और उस रोड के बीच एक सुंदर झील भी है... जो हमारे फर्क को साफ़ कर देती है... एक ऐसा फर्क, जिसे मै कभी ख़त्म नही होने देना चाहता... ये फर्क है शोर और शान्ति के बीच का... ये फर्क है भागते मुसाफिर और मंजिल के बीच का... ये झील माया है... एक ऐसी माया जिसने आधी शताब्दी से ज्यादा इस फर्क की रक्षा की है... न जाने कितने विचार इस झील की सतह पर चमकते होंगे, न जाने कितने भाव इसके अंतस में उमड़ते होंगे और न जाने कितने सपने इसके ह्रदय में अपना आसरा पाते होंगे...
पहली बार ये खेल किसी अंधी दौड़ की तरह दीखता है... लगता है जाने कितनी बार अपने को साबित करने के अति-व्यर्थ प्रयत्न करने होंगे... तब मन कही भाग जाना चाहता है... और इसी झील के किनारे-किनारे चलकर माँ के आँचल में छुप जाता है... तब लगता है जो देखा वो न तो काफी था और न ही सच... और अचानक तुम्हारे कान में कोई कह जाता है कि तुम ईश्वर हो...
दो साल से धुंधलाए शब्द साफ़ होने लगते है.... और मेरी दृष्टि मुझे मेरे अस्तित्व कि खोज में कई कदम आगे बढ़ा देती है...क्योकि रास्ते में चलते चलते कही उसने पढ़ लिया था "ज्ञानं परमं ध्येयं"