Monday, October 15, 2007

मैं मूक कवि



मैं मूक कवि हूँ ,मूक कवि
मैं कह नही सकता भावो को
इसलिये उकेरता रहता हूँ
कागज़ पर डगमग नावों को ||

मैं सुन सकता हूँ ,सुनता हूँ
तरह-तरह की बातो को
कितने पंछी के कलरव को
आंधी मे डालो-पातो को||

चुपचाप मैं बस सुनता रहता
जो जगती मुझको सुनाती है
कभी,वीणा की मधुर तान
कभी,घृणित शोर बन जाती है||

जितने है मुँह उतनी बाते
एक अवसर आने की देरी
और अवसर आते ही देखो
कैसे बजती है रणभेरी ||

एक प्रतिस्पर्धा,समर,युद्ध
छिड़ जाता है लोगो मैं तब
कोई कितना शोर मचाता है
कोई कितनी बात बनाता है||

कैसी है ये दुनिया तेरी
जीते नही जीने देती है
करती रुख अँधेरी गलियाँ
पीते नही पीने देती है ||

दो ह्रदयों का मेल अगर हो
हानि बता जग तेरी क्या है?
क्यों बांटे है तू ह्रदयों को
बांटे ये बहुतेरी क्या है?

चटखारे लेकर पर-पीड़ा
सुनी -सुनाई जाती है
जिन बातो को ढकना हो
वाही बात बताई जाती है||

"कैसा जीवन जीते है वे
जिनको वाणी-वरदान मिल
उनसे तो अच्छा मैं गूंगा
जिसको गूंगापन दान मिला "



||आशीष ||

3 comments:

Mayank said...

Ab kya kahen....
Phodu! GodMax! Cracku!
Abe tu IIT mein kar kya raha hai??? Arts le leta to abhi tak books chapwa dete(agar profs jalan ke maare tujhe maar na dalete tabhi)

on serious note:
It was awesome... Sachhi lingo ka gajab use...err... upayog tha....q

आलोक कुमार said...

दो ह्रदयों का मेल अगर हो
हानि बता जग तेरी क्या है?
क्यों बांटे है तू ह्रदयों को
बांटे ये बहुतेरी क्या है?

गुणवत्ता की धाक जमा दी…यमक अलकार का सुंदर प्रयोग !

omi said...

itz superb yaar aashish.....
awsome...
keep it up