कई दिनों बाद
आज मै लिखने बैठा हूँ
लगता है किसी ने तरल कर दिया है
मेरे मन की सूखी स्याही को
और अब मेरी खुशियाँ भी
तरल हो चुकी है
मेरी भावनाए मेरी उंगलियों के छोरो से
बह रही है
और सोख ली जाती है
जीवन के कोरे कागज़ पर |
मैंने अधिकार दिया
दूसरो को रंगने का
अपने जीवन के कागज़
और देखो उन्होंने क्या कर दिया-
हर पन्ने पर लाल छींटे है
मेरी इच्छाओ के
कुछ लकीरे भी है जो
भावनाओं के मरने के बाद
आस-पास खीच दी गई....
कई दिनों बाद
आज मै लिखने बैठा हूँ...
Sunday, October 12, 2008
Saturday, October 4, 2008
पथिक ओ !
मै कहता हूँ सुन लो
पथिक ओ ! पथिक ओ !
कही चलते चलते
भटक तुम न जाना |
है राहे तुम्हारी
विजय और जाती
कही कंटको में
अटक तुम न जाना
कही चलते चलते
भटक तुम न जाना
न देखा न जाना है
तुमने पथिक ओ
कि इतना सुलभ भी
ये पथ तो नही है
मिले ढेरो पत्थर
चुभे पैर कंकर
बिना चोट के जीत
सम्भव कही है ?
कि ख़ुद को तपाकर
यु सांचे में ढालो
प्रहारों से देखो
चटक तुम न जाना
कही चलते चलते
भटक तुम न जाना ||
पथिक ओ ! पथिक ओ !
कही चलते चलते
भटक तुम न जाना |
है राहे तुम्हारी
विजय और जाती
कही कंटको में
अटक तुम न जाना
कही चलते चलते
भटक तुम न जाना
न देखा न जाना है
तुमने पथिक ओ
कि इतना सुलभ भी
ये पथ तो नही है
मिले ढेरो पत्थर
चुभे पैर कंकर
बिना चोट के जीत
सम्भव कही है ?
कि ख़ुद को तपाकर
यु सांचे में ढालो
प्रहारों से देखो
चटक तुम न जाना
कही चलते चलते
भटक तुम न जाना ||
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