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Tuesday, June 2, 2009

समर्पण !

समर्पण !
वे कहते है कि समर्पण से तुम मुक्त होते हो। समर्पण से तुम अपनी क्षमताओं को असीमित कर लेते हो। और मेरे मन में ख्याल आता है कि बूँद से सागर हो जाना क्या सच में सम्भव है या बस किवदंती। शून्य से अनंत होने का भाव और दोनों का एक ही होना मुझे कोई मूर्त रूप तो नही दिखाता पर हाँ अमूर्त संभावनाओं को मेरे अन्दर जन्म अवश्य दे देता है। वो संभावनाए जिनके मै केवल सपने देख पाता हूँ। या कभी-कभी बंद आँखों के साथ छू भर लौट आता हूँ।

वे कहते है कि समर्पण का अर्थ है पूरी ज़िम्मेदारी लेना और जब मेरी ज़िम्मेदारी लेने की बारी आती है तो सारी ख़ुद धर लेते है। वे कहते है कि समर्पण से पीड़ा नही होती। फ़िर तुम्हे चाहने में दर्द क्यो होता है। फ़िर हंसते है और कहते है कि प्रेम के स्वभाव में है पीड़ा।
तुम्हारी मुस्कान कुटिल है। कभी-कभी सोचता हूँ कि तुम मेरे भोलेपन पर हंसते हो या अज्ञान पर। पर जब भी तुम हँसते हो मेरे दर्द गायब हो जाते है कुछ याद आता है और सबकुछ भूल जाता हूँ। फिर मै झूमने लगता हूँ।
मै उस पल वो पल हो जाता हूँ।