Sunday, March 22, 2009

सच्चा वीर बना दे माँ..

अपने एक मित्र के द्वारा पता चला की कैम्पस में एक ऐसा भी कार्यक्रम चलाया जा रहा है जिसमे गरीब बच्चो के विकास केलिए कार्य किया जाता है... मुझे बताया गया कि वे बच्चे मुंबई के slums के है और यहाँ पर वे पढ़ने आते है... कार्यक्रम मुझेबड़ा ही रोचक प्रतीत हुआ और साथ ही साथ इस कार्यक्रम की महत्ता का अनुभव हुआ। किस्मत से मुझे ये सब रविवार कोही पता चला और ये कार्यक्रम भी रविवार को ही होता है। तो बस देर ही क्या थी, जैसे ही शाम हुई मै NCC मैदान कीतरफ़ निकल पड़ा। पहुचते ही देखता हूँ किकई सारे बच्चे और कुछ - मेरी उम्र के लोग लंगडी खेल रहे थे... मै वहीखड़ा होकर उन्हें देखने लगा। सब लोग एक गोले में खड़े थे; गोले में से एक खिलाडी को चुनकर लंगडा बनाया जाताऔरकिन्ही भी और दो को चुन लिया जाता. अब इन दो लोगो को बचना होता है और लंगडे को एक पैर सहारे दौड़कर ( उछल-उछलकर) उन्हें पकड़ना होता है। जब भी कोई नया खिलाडी गोले में आता तो वह चिल्लाकर बोलता " जय भवानीजय शिवाजी ".
यूं तो मै रोज़ ही जाने कितने खेल और खिलाडियों को देखता हूँ पर ये खेल कुछ अलग सा था। सच पूछो तो ये खिलाडीकुछ अलग से थे... मैंने शायद बहुत लंबे समय से किसी को इतनी जिंदादिली इतनी खुशी और उत्साह के साथ खेलते नहीदेखा था। उन बच्चो ने शायद पूरे वातावरण को आंदोलित कर दिया था। और इस अनजाने आन्दोलन में मेरा मन उत्सव मनरहा था। मै उनसे आँखे हटा ही नही पाया। बस एकटक उन्हें देखता रहा। इस खेल के बाद एक दूसरा खेल भी हुआ जिसमेदोनों टीमो के एक-एक लड़के को आकर दोनों टीमो के बीच रखे रुमाल को पाने की जद्दो-जहद करनी थी। खेल बदल गयापर मियाँ खिलाडी तो वही है॥ फ़िर से वही धामा-चौकडी, चिल्ला-चोट मन किया कि मै भी जाकर उनके खेल का हिस्साबन जाऊ.... नही अगर ऐसा हो गया तो maturity
की परिभाषा नही बदल जायेगी... सो मै नही गया...

पर हाँ इसके बाद भैय्या ने सबको बैठाकर एक छोटा गोला बनवाया मुझे दूर खड़ा देखकर उन्होंने मुझे भी साथ बैठने कान्योता दिया। मै इनकार कर सका। फिर उन्होंने सब बच्चो को कहानी सुनाई। जो सदा सच बोलने की शिक्षा देती थी...

अंत में भैया ने एक गीत सुनाया ( जो उनके पीछे-पीछे हम सब गा भी रहे थे )... गीतकुछ इस प्रकार था॥
" सच्चा वीर बना दे माँ..."

सचमुच इस घटना ने मुझे अन्दर तक छुआ और बहुत सारी चीजे सिखा दी... मुझे पता चला की बच्चे अपना जीवन कितनीखुशी कितने उत्साह के साथ जीते है...
और एहसास हुआ अपनी जिम्मेदारी का क्योकी ऐसे लाखो बच्चे अब भी ऐसे किसी कार्यक्रम का इंतज़ार कर रहे है.....

बर्तन खत्म होने का इंतज़ार

माँ जब बर्तन मान्झकर कमरे में आती तब मै अक्सर उनकी गीली साड़ी से लिपट जाया करता था। और वो प्यार से एकहाथ मेरे सर पर रख देती और दूसरे हाथ से मेरी पीठ सहलाया करती। कभी-कभी अगर थकी हो तो नीचे झुककर चूमभी लिया करती। फिर मै उन्हें अपने पास ही बैठा लेता। जैसे कि जाने कब से मन ही मन बर्तन खत्म होने का इंतज़ार कररहा हूँ। इस बात को तो मै भी नही समझ पाया कि मुझे उस इंतज़ार का बोध होता था या नही। पर हाँ इंतज़ार ज़रूर होताथा। ममता के आलिंगन का सुख कोई बता नही सकता केवल महसूस कर सकता है वो भी पूर्ण रूप से बचपन में जब घर, खिलौनों , ओटले, छत और घर के सामने पड़ी रेत में छुपे छोटे-छोटे सीपों में रमा बचपन माँ की सुबह से शुरू होकर माँ कीरात में ख़त्म होता है। दरअसल रात भी मेरे लिए हुआ करती थी माँ तो जागती थी यह देखने कि कही मै अपने ही गीले परतो नही सो रहा। या मुझे बुखार तो नही। या फिर ये देखने कि मैंने चादर ओढी है या नही। लेकिन सुबह माँ सबसे पहले उठजाती थी मुझे ये इसलिए पता है क्योकि माँ के अलावा मैंने घर के सब लोगो को कभी कभी नींद से उठते देखा है। माँको भी देखा है दोपहर की नींद से उठते जब किचन में बर्तन गिरने कि आवाज़ पर बिल्ली के दूध पी जाने के डर से वो चौककर उठा करती थी। माँ हर रोज़ सुबह झाडू लगाती थी और मुझे लगता था कि ये माँ का शौक है क्योकि हमारे कच्चे घरको धूल रहित कर पाना असंभव था। पर हाँ माँ ने अपनी कोशिश कभी छोडी और ही कभी अधिक एहसास होने दियाकि घर कच्चा है और पडौसी का घर हमसे बेहतर है। ग्रह-स्वामिनी अपने घर की भद्द देख ले यह उसे बर्दाश्त नही। वैसे घरभी कोई छोटा नही , २० लोगो का कुनबा था और इस घर के हर काम को बारीकी से पूरा करना मेरी माँ के जीवन काएकमात्र उद्देश्य।

माँ रोती भी थी। कई बार जब दादी उनपर चिल्लाती या ताई उनपर रौब जमाती या चाचा या घर का कोई भी सदस्य माँ कोदुत्कारने का जन्मसिद्ध अधिकार सब लेकर आए थे। कभी-कभी मेरे पिता का हाथ भी उठता था। तब माँ बहुत लड़ती थी , पिता के ऊपर बहुत चिल्लाती थी। रोती जाती चिल्लाती जाती। मै भी रोता था।

लेकिन अगले दिन फिर बर्तन मान्झकर कमरे में आती और मै रोज़ की तरह उनकी गीली साड़ी से लिपट जाया करता।
कभी-कभी अगर थकी हो तो नीचे झुककर चूम भी लिया करती फिर मै उन्हें अपने पास ही बैठा लेता जैसे कि जाने कब से मन ही मन बर्तन खत्म होने का इंतज़ार कर रहा हूँ

खांचे

जाने क्यो वो हर चीज़ जिसे मै आज तक सच समझता था धुंधलाई सी नज़र आ रही है... मेरी दुनिया तो यही थी न...फिर आज क्यो मुझे आकाश को देखने की ज़रूरत पड़ती है... क्यो आज वो दुनिया जिसे मै जीतने निकला था पाने काबिल नही रही... क्यो क्षितिज पर तनी सीमाए मुझे छोटी लगती है... दुनिया इतनी छोटी तो कभी नही थी...
फिर लगा शायद मेरा उत्तर सापेक्षता हो... मतलब कि everything is relative...
पहले कभी इस दुनिया से बड़ा कुछ देखा ही नही था... या यूँ कह लो कि पहले कभी इस दुनिया के छुटपन का ज्ञान नही था... सबकुछ कितने छोटे खांचो में समा जाने लायक...
भावनाओं के खांचे, प्रभावों के खांचे, अंहकार का खांचा ऐसे ही कुछ चंद गिनती के खांचे.. कुछ खांचो में निर्वात भी पलता था..शायद ये सबसे गहरे खांचे थे... मन एक खांचे से दूसरे खांचे में कूदता रहता है... और हम इसे जटिल जीवन कहते है... इन सभी खांचो में हम कही नही होते ... ऐ सांचे हमारी दुनिया होते है.... तो मतलब हम कभी अपने आप में होते ही नही है... शायद मै हूँ... इसका भान भी विरले होता है...
अतृप्त व्याकुल मन बस भटकता रहता है... खांचे बदलता रहता है... और हम इसे जटिल जीवन कहते है...
and then comes the famous phrase "happiness can only be pursued"...

पर वे कुछ खाली लम्हे जो हमें निर्वात के खांचे में ले जाते है सबसे खूबसूरत होते है... क्योकि तब अनजाने ही एहसास हो जाता है कि happiness need not be pursued its your self.... its the Dimension of your existence...
इन सारे खांचो में प्यार का कोई खांचा नही होता... क्योकि प्रेम से सबकुछ बना है.... हम हमारा मन और हाँ ये सरे खांचे भी प्रेम का रूप है... अच्छा या बुरा... beautiful or distorted... but it is love...

अपने अन्दर के एहसास का वो एक क्षण तुम्हे अनंत से मिलाता है.... और तब मन सच कि समाओ के परे कुछ खोजने लगता है....
और यही खोज हमें एहसास दिलाती है ........LIFE IS SO BEAUTIFUL...