Sunday, November 23, 2008

रंग मेरे जीवन के

लोग मुझे कवि समझते है... मेरी कविताए पढ़ते है तारीफे करते है...और कई बार पूछते भी है क्या सोचा ? कैसे लिखा ? कई बार तो यही सवाल वे लोग पूछते है जो मेरी प्रेरणाओं का हिस्सा होते है या फ़िर वे लोग जिनके लिए मै लिखा करता हूँ...
आज मन है कहने का, सो जवाब सुन लिजिये... दरअसल मै कवि नही चित्रकार हूँ...

बरसो पहले मेरे पिता ने मुझे कुछ रंग लाकर दिए और कहा की ये सात रंग काफी है... रंगते रहो | पर क्या रंगना है उन्होंने बताया ही नही | मै फर्श रंगने लगा, दीवारे रंगने लगा, अलमारी के किवाड़, घर का दरवाजा, जगह-जगह अपनी कलाकारी के निशान छोड़ दिए | पिताजी खूब हँसे, न गुस्सा किया...न डाटा | बस कहा की हमेशा इसी तरह अपनी और अपनों जिंदगियां रंगते रहना| और उसके लिए जो रंग चाहिए वो तुम्हारे मन में छुपे है... ढूंढ सको तो ढूंढ लो |
मै आज भी ढूंढ रहा हूँ|
जब भी कोई रंग मिलता है एक नयी तस्वीर बना लेता हूँ| उससे पहले की वो रंग गायब हो जाए वक्त के नाक-नक्श चितेर देता हूँ| अजीब बात तो तब हुई जब उम्र के एक नये पड़ाव ने मुझे एक नया रंग दिया.... लाल रंग| मैंने सोचा कि चलो प्यार की तस्वीर बनाए| मैंने रंग लिया और शुरू हो गया..... मै तो बस एक ज़रिया था... दरअसल मै कुछ बना भी नही रहा था... रंग को जैसे ढलना था वो अपने आप ढल रहा था...
मै ग़लत लकीर खीचता तो मिट जाती | सही लकीर अपने आप खिच जाती | रंग अपने आप फैलते सिमटते जा रहे थे |
अचानक मैंने अपने आप से पूछा क्या प्यार की इतनी खूसूरत आँखे होती है ? क्या प्यार इतना सुंदर होता है...मेरे सामने एक अनजान सी तस्वीर उभर आई | प्यार की वो तस्वीर जिससे मुझे प्यार हो गया| और इस एक तस्वीर ने मुझे जाने कितनी कविताए दी है...

कितना अजीब है... एक अनजान सी छवि आती है और मेरे हर शब्द को प्रेरणा मिल जाती है....अब तो जिन्दगी भी सुंदर कविता लगने लगी है | मन करता है कि इन्ही सात रंगों से हमारा मिलन बुन दूँ |

अब शायद सात रंगों के नाम भी जानता हूँ ..... और वो नाम मेरी स्याही तुम्हे बता चुकी है...

काश

काश प्रिये मेरी धड़कन को
अपने मन से सुन पाती तुम
काश प्रिये गीतों को मेरे
सांसों में अपनी बुन पाती तुम


काश प्रिये तुम मुझसे मुझतक
और मेरे अंतस में रहती
मुझपर बस अधिकार तुम्हारा
काश सदा तुम मुझसे कहती

काश तेरे कोमल हाथो को
हाथो में अपने ले सकता
और अगर ये हो सपनो में
काश और सपने ले सकता

काश कभी तुमसे कह पाता
कितना गहरा प्यार हमारा
एक इबादत तुमसे की है
कभी न होगा प्यार दोबारा

काश प्रिये इस दीवाने को
अपना साथी चुन पाती तुम
काश प्रिये मेरी धड़कन को
अपने मन से सुन पाती तुम

Wednesday, November 5, 2008

तुमसे प्यार करने लगा हूँ मै !

नही मै नही लिख सकता
क्या लिखूं ? कैसे लिखूं ?
अपने ही शब्दों में
आप उलझने लगा हूँ मै
हाँ! तुमसे प्यार करने लगा हूँ मै !

समझ नही आता की कैसे
अपनी सारी भावनाए
शब्दों में ढाल दूँ
और मन के सारे रंग
एक प्रष्ठ पर उतार दूँ...

पर हाँ , आजकल एक
अनजान सा चेहरा
कागज़ पर चितरने लगा हूँ मै
हाँ ! तुमसे प्यार करने लगा हूँ मै !

दिन रात बस यही सोचता हूँ
कि तुम मेरे बारे में
क्या सोचती होगी
या फ़िर ये कि
क्या तुम मेरे बारे में सोचती होगी ?
मन मेरा पर विचार तुम्हारे होते है
झील मेरे अंतस की है और
नीर तुम्हारे प्रेम का
और इसी की थाह को पाने
हाँ ! उतरने लगा हूँ मै!
हाँ ! तुमसे प्यार करने लगा हूँ मै !

जब पहली बार तुम्हे मैंने
कनखनी से हँसते देखा था
तब मुझे लगा शायद ये ज़िन्दगी
ऐसे ही हँसती होगी
और तबसे शायद रोज़
उसी मुसकान की राहे तकता हूँ

तेरी एक झलक को पाने
हाँ! तरसने लगा हूँ मै
हाँ ! तुमसे प्यार करने लगा हूँ मै !

कलम ये मेरी हठ करती है
कहती है न और लिखूंगी
और मेरे शब्दों को शायद
एक प्रेरणा बाँध चुकी है


कहता था न तुमसे
मत तारीफ़ करो तुम इनकी
तुम से तुम तक
शब्द मेरा, संगीत मेरा, गीत मेरे
झंकार मेरी और प्राण मेरे
इन संग ही बहने लगा हूँ मै
हाँ ! तुमसे प्यार करने लगा हूँ मै!